चार दशक से अधिक समय की राजनीति को बहुत करीब से अध्ययन करने के बाद यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज की राजनीति पतन नहीं, पतन की जिद बन चुकी है। यह वह राजनीति नहीं रही जहाँ मतभेद लोकतंत्र की ताकत होते थे। आज मतभेद अपराध हैं और असहमति अर्थात खात्मा ।
एक समय था जब अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक राजनीति में दुश्मन होते थे, दुश्मनी नहीं। विरोध होता था, वैमनस्य नहीं। नेताओं के बीच वैचारिक युद्ध होता था, लेकिन मानवीय संबंध सुरक्षित रहते थे। आज स्थिति ठीक उलट है—आज संबंधों की हत्या कर सत्ता का उत्सव मनाया जाता है।
सुंदरलाल पटवा जी , अर्जुन सिंह जी कैलाश जोशी जी, वीरेंद्र सकलेचा जी, शीतला सहाय , रामहित गुप्ता , दिग्विजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, सुभाष यादव जी —इन नामों के बीच सदन में शब्दों की तलवारें चलती थीं, लेकिन खून नहीं बहता था। दिग्विजय सिंह के विरुद्ध युवा नेताओं की टोली जिसमे बृजमोहन अग्रवाल , कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र तोमर, डॉ गौरी शंकर सेजवार, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, की तीखी वाणी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष थी, व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं।
अजीत जोगी के खिलाफ छत्तीसगढ़ विधानसभा में उग्र भाषण होते थे, पर लेकिन दरवाज़े बंद नहीं होते थे।
आज सदन के भीतर भाषा हिंसक है और सदन के बाहर नफरत योजनाबद्ध।
आज राजनीति में विरोध का अर्थ है,
“नष्ट करो, बदनाम करो, चरित्रहनन करो और अगर संभव हो तो परिवार तक पहुँचा दो।” यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ सवाल पूछने वाला दुश्मन है
आलोचना करने वाला गद्दार है
सच बोलने वाला षड्यंत्रकारी है।
आज राजनीति में शालीनता कमजोरी मानी जाती है और मर्यादा को मूर्खता का नाम दिया जाता है।
पहले नेता आरोप लगाने से पहले खुद से सवाल करता था—
“क्या मेरी हैसियत, मेरा चरित्र और मेरा कद मुझे यह अधिकार देता है?”
आज हालात यह हैं कि जो व्यक्ति खुद पार्षद का चुनाव नहीं जीत सकता, वह मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय नेताओं के चरित्र पर फैसला सुना रहा है।
यह लोकतंत्र नहीं, भीड़तंत्र का उन्माद है। आज विकास कार्यों में खामी बताना जानी दुश्मनी का कारण बन गया है। आज व्यवहार पर सवाल उठाना व्यक्तिगत युद्ध का एलान है। आज सच बोलने से नेताओं को बदहज़मी नहीं, दौरा पड़ता है।आज का नया राजनीतिक सिद्धांत बड़ा स्पष्ट है—
हम जो करें वही सत्य।
हम जो बोलें वही राष्ट्रहित।
आज यह राजनीति नहीं, अघोषित तानाशाही का अभ्यास है।
यह सत्ता नहीं, अहंकार की बपौती है। यह लोकतंत्र नहीं, डर के साए में पनपता मौन है। आज नेताओं को जनता नहीं चाहिए— उन्हें चाहिए तालियाँ, डर और अंधभक्ति।
विचार राजनीतिज्ञों को ,उन्हें परेशान करते हैं, संवाद उन्हें कमजोर करता है। यदि राजनीति से संबंध, संवेदना और सहिष्णुता खत्म हो जाए—
तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र सिर्फ कागज़ों में बचा है। यह समय चुप रहने का नहीं है। क्योंकि इतिहास गवाही देता है— जब राजनीति संवाद छोड़ देती है,
तो समाज टूटता है।और जब समाज टूटता है, तो देश चुपचाप मरता है।
(साभार लेखक की कलम से)

